"दूसरे टाई सिंड्रोम"
रमेश हमेशा से अपने मन के मालिक थे—जब तक उनकी शादी नहीं हुई। उन्होंने प्रिय का वर्षों तक प्रेम किया था, और जब वे विवाह के बंधन में बंधे, तो वे उसे हर संभव तरीके से खुश करने के लिए उत्सुक रहने लगे। वे वही खाने लगे जो प्रिय को पसंद था, वही पहनने लगे जो उसे अच्छा लगता था, और धीरे-धीरे, उनके दोस्त भी पीछे छूटने लगे।
एक शाम, उन्हें एक औपचारिक पार्टी में जाना था। रमेश ने बड़ी सावधानी से अपने सूट के साथ एक ग्रे टाई चुनी और आईने के सामने खड़े होकर उसे ठीक करने लगे।
प्रिय ने एक नजर डाली और कहा, "क्यों न दूसरी टाई पहन लो?"
रमेश रुके, आईने में खुद को देखा और बिना कुछ कहे वापस अंदर जाकर टाई बदल ली। यह पहली बार नहीं था, और न ही आखिरी। सालों तक यह चलता रहा। उनके छोटे-बड़े फैसले, उनकी पसंद—सब प्रिय की टिप्पणियों से प्रभावित होते गए। और उन्हें यह बुरा भी नहीं लगता था, क्योंकि वे इसे प्रेम का प्रतीक मानते थे।
लेकिन समय के साथ प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं। पहले जो बारीकियाँ प्रिय की नज़र में आती थीं, वे धीरे-धीरे धुंधली होने लगीं। अब वह उनके कपड़ों, उनकी पसंद, या उनके बढ़ते वजन पर कोई टिप्पणी नहीं करती थी।
एक दिन, रमेश जब तैयार होकर आईने के सामने खड़े हुए, तो उन्हें एहसास हुआ—प्रिय ने कुछ नहीं कहा। न टाई के रंग पर, न सूट के फिटिंग पर, न ही उनकी शकल-सूरत पर। यह ख़ामोशी पहले की गई टिप्पणियों से भी भारी लगी।
पहले तो उन्हें लगा, "क्या प्रिय अब मेरी परवाह नहीं करती?" लेकिन फिर उन्होंने समझा कि यह रिश्ते का एक नया चरण था। वह पहली वाली सतही चीज़ें अब मायने नहीं रखती थीं। उनका रिश्ता पहले से कहीं ज्यादा गहरा हो चुका था। अब प्यार का इज़हार शब्दों और दिखावे से नहीं, बल्कि एक अनकही समझदारी से हो रहा था।
"दूसरे टाई सिंड्रोम" क्या है?
रमेश की यह कहानी अनोखी नहीं है। हर रिश्ते में, हर जीवन के क्षेत्र में ऐसा होता है। शुरू में हम बाहरी चीज़ों पर ध्यान देते हैं—कपड़े, आदतें, तारीफ़ें। लेकिन समय बीतने के साथ ये बातें गौण हो जाती हैं, और हम इसे उदासीनता मान बैठते हैं। लेकिन असल में, सच्चा रिश्ता सतही चीज़ों से नहीं, बल्कि मन और आत्मा के जुड़ाव से बनता है।
यह बदलाव इतिहास और पौराणिक कथाओं में भी देखा जा सकता है। रामायण में जब रावण ने सीता का हरण किया, तो श्रीराम केवल उनके शारीरिक रूप से बिछड़ने से दुखी नहीं थे, बल्कि उनकी आत्माओं का जो बंधन था, वही छूट गया था। इसी तरह, महाभारत में द्रौपदी के लिए केवल उसकी रानी की उपाधि महत्वपूर्ण नहीं थी, बल्कि पांडवों के साथ उसका रिश्ता और आपसी सम्मान उसके जीवन की असली पूंजी थी।
व्यवसाय और नेतृत्व में भी यही सच लागू होता है। शुरुआत में कंपनियाँ अपनी छवि और दिखावे पर जोर देती हैं, लेकिन असली सफलता उनकी गहरी जड़ें—नैतिकता, विश्वास और दूरदृष्टि से मिलती है। एक कंपनी की सफलता केवल आकर्षक प्रस्तुतियों में नहीं, बल्कि उसके मज़बूत मूल्यों में होती है।
जीवन का सबक
"दूसरे टाई सिंड्रोम" हमें सिखाता है कि जो चीजें आज महत्वपूर्ण लगती हैं, वे कल अप्रासंगिक हो सकती हैं। प्रेम, दोस्ती, और करियर केवल बाहरी मान्यता पर आधारित नहीं होने चाहिए। समय के साथ सतही चीज़ें पीछे छूट जाती हैं और गहरे मूल्य अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
तो अगली बार जब कोई आपसे कहे, "क्यों न दूसरी टाई पहन लो?"—तो मुस्कुराइए, लेकिन याद रखिए, असली रिश्ता टाई से नहीं, उस अनकहे बंधन से बनता है।
3 comments:
दाम्पत्य जीवन में प्रेम प्रसंग की वास्तविकता से जुड़ा अद्भुत वर्णन। सनातन दर्शन में तो सफल दाम्पत्य ही स्वर्ग का द्वार है, बशर्ते मन में निर्मल प्रेम का वास हो। और यह भी सत्य है कि : जिन खोजा तीन पाइया। प्रेम के आधीन तो स्वयं ईश्वर तक है
- *प्रेम कृष्ण की बाँसुरी प्रेम राधिका नाम*
- *पावन सच्चा प्रेम यूँ जैसे चारों धाम*
विशेष संदेश यह भी है कि वास्तविकता के धरातल फिर भले ही वह हम स्वयं हों या कॉरपोरेट संसार यह सफलता का प्रथम सोपान है।
आपने हिंदी में सफल प्रयास किया उसके लिये हार्दिक बधाई 🌷🙏🏽
Thanks dear Vijay for your knowledgeable rejoinder!
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