Thursday, July 17, 2025

वो शाम

ब्लॉग शीर्षक: वो शाम...
✍️ लेखक: एस. एन. रॉय


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"वो शाम कुछ अजीब थी..."
हर बार जब ये गाना बजता है, दिल में एक गुदगुदी सी होती है। जैसे किसी ने पुरानी रील चला दी हो – कभी रंगीन, कभी ब्लैक एंड व्हाइट, लेकिन हमेशा दिल के बेहद करीब।

बात सिर्फ गाने की नहीं है, किशोर दा की आवाज़ जैसे दिल की नसों में उतरती है। कभी किसी सुंदर दृश्य को देखकर – झील का शांत पानी, हल्की गुलाबी शाम, चाय की प्याली और पत्नी की नाराज़गी (जो हर शाम के साथ फ्री में मिलती है) – तो लगता है, बस यही है जीवन। फिर वही गाना... वो शाम कुछ अजीब थी...

लेकिन जनाब, ये गाना सिर्फ खुशी में नहीं बजता।
कई बार ऐसा भी होता है जब कोई वजह नहीं होती उदासी की – फिर भी मन भारी-भारी सा रहता है। शायद शरीर के अंदर के केमिकल्स कोई सीक्रेट पार्टी कर रहे होते हैं – डोपामिन ने छुट्टी ले ली हो, सेरोटोनिन रूठ गया हो, और कोर्टिसोल ने पूरा मंच संभाल लिया हो। तब ये गाना खुद ब खुद मन में गूंजने लगता है।


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नॉस्टैल्जिया – इस उम्र की एसी!

अब 80 की उम्र में, जबकि घुटनों की 'ग्रेजुएट डिग्री' पूरी हो चुकी है, और नींद 3 घंटे की 'मिनी सीरीज' बन चुकी है, नॉस्टैल्जिया ही एकमात्र Netflix है जो बिना सब्सक्रिप्शन चलता है।

कभी-कभी जब सुबह अख़बार लेकर आता हूँ (हां, अब भी आता है – डिजिटल युग में ये एक ‘पुरातन गौरव’ है), तो याद आता है – तब के अख़बार में खबर होती थी, अब बस विज्ञापन और अपराध!


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हास्य भी जरूरी है, वरना शाम अजीब से भी अजीब हो जाएगी

पत्नी पूछती हैं – “इतना उदास क्यों हो?”
मैं कहता हूँ – “कुछ नहीं, बस वो शाम याद आ गई।”
वो मुस्कराकर कहती हैं – “तब की शाम याद कर रहे हो या तब की शमा?”
अब क्या जवाब दूं? बस मुस्कराकर नींबू पानी का घूंट लेता हूँ। वो भी अब चाय की जगह ले रहा है – डॉक्टर साहब की सख़्त हिदायत पर।


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शाम और जीवन – दोनों अब धीमे हैं

अब शाम 6 बजे का मतलब पहले जैसा नहीं है। पहले यही वक्त होता था छत पर टहलने, बच्चों के शोर-शराबे, पतंगबाज़ी और गली क्रिकेट का। अब शाम होती है WhatsApp यूनिवर्सिटी की पोस्ट पढ़कर और रिमोट खोजते हुए।

और जब टीवी से भी मन ऊब जाए, तब मन फिर उसी धुन पर लौटता है –
"वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है..."
पर अब हम अजीब को अपनाने लगे हैं।


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अंत में – वो शाम, हर शाम में है

हर उम्र की अपनी ‘वो शाम’ होती है।
कभी कॉलेज की कैंटीन में, कभी स्टेशन के प्लेटफार्म पर किसी को अलविदा कहते हुए,
कभी नौकरी के पहले दिन, तो कभी रिटायरमेंट की आखिरी मीटिंग में।
हर बार कुछ अधूरा, कुछ पूरा... और दिल से निकला एक ही सुर – "वो शाम..."


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नोट: अगर अगली बार कोई आपको उदास देखे और पूछे "क्या हुआ?" तो बस मुस्करा दीजिए और कहिए –
"कुछ नहीं, बस... वो शाम याद आ गई..."

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